Tuesday, February 17, 2009

शायद, वो मेरा 'आदर्श' है

बात छह साल पहले से शुरु होती है। मैनें रांची के संतजेवियर्स कॉलेज मे दाखिला लिया था। मेरा सबजेक्ट था हिंदी ऑनर्स। वैसे इसके पहले मैं रांची कॉलेज रांची से इंगलिश में ऑनर्स कर रहा था। मैंने पार्ट वन में 58 फीसदी अंक भी हासिल किए। लेकिन मेरा दिल अंग्रेजी के साहित्य में नहीं रम पाया। इसलिए मैने हिंदी से बीए करने का फैसला किया था। इस भाषा के प्यार में मैं इसलिए भी ज्यादा पड़ गया था क्योंकि मेरी पहली महबूबा सिंर्फ इसी भाषा में लिखे खत को ही समझ पाती थी। नौवीं क्लास से इंटर के दौरान मैं अमूमन हर दिन उसे दो खत लिखा करता था। और एक खत कम से कम चार पन्ने का होता था। मैनें सबसे बड़ा खत 18 पन्नों का लिखा है। जो आज भी संग्रहित है। बहरहाल मुहब्बत की बदौलत हिंदी की दीवानगी मुझपर ऐसी चढ़ी की मैं आम बोलचाल के दौरान भी शब्दकोशीय हिंदी के प्रयोग का आदी हो गया। और संत जेवियर्स जाते जाते तो हिंदी मुझपर इतना हावी हो गई की छोटी से छोटी बात को भी साहित्यिक और भाषिक तौर पर समृद्ध किए बिना मैं कुछ बोल नहीं पाता था। मेरा ये कुदरती अंदाजे बयां भी एक वर्ग को खासा लुभाती थी, तो कुछ लोगों के लिए मेरा ये अंदाज मनोज कुमार के जमाने का स्टाइल था। लेकिन इस अंदाज के चलते मुझे मेरे सहपाठियों और शिक्षकों से भी आदर मिलता था। मेरी बात हल्के में कभी नहीं ली जाती थी। ये हिंदी भाषा का ही प्रभाव था कि मेरे गांव के सभी बुजुर्ग लोग मेरे उम्र के दूसरे लड़को से मुझे ज्यादा मानते थे। वे मुझे संस्कारी कहते थे। गांव स्तर पर मुझे जिम्मेदारी भरे कई काम भी लोग आंख मूंद कर सौंप दिया करते थे। लेकिन तीन साल की पढ़ाई के दौरान मुझे न तो कॉलेज में और ना हीं किसी दूसरी जगह मेरे टाइप का कोई इंसान मिला। मैं हिंदी पर ज्यादा जोर इसलिए भी देता था क्योंकि मैंने दसवीं क्लास से ही हिंदी पत्रकारिता में जाने की ठान ली थी। बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं पत्रकारिता करने के लिए दिल्ली आ गया। इंट्रेस एक्जाम के दिन जिन लोगों से परिचय हुआ उनमें से कई ने मुझसे बातचीत के बाद यहीं कहा कि आपका सेलेक्शन तो तय है। उसकी वजह भी मैं अपनी उसी शैली को मानता हूं। सौभाग्यवश मेरा उस कॉलेज में नामांकन भी हो गया। मैं पढ़ने लगा। एडमिशन के वक्त मुझे ये उम्मीद थी कि मुझे शायद यहां मेरे जैसा कोई साथी मिल जाएगा। लेकिन अफसोस की निराशा ही हाथ लगी। मेरे साथ पढ़ने वालों में से ज्यादातर तो लड़कियां थी जिनमें से अधिकांश को भाषा के स्तर पर कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी। हां कुछ की अंग्रेजी माशाअल्लाह थी। पढ़ाने वाले भी दोनों हिंदी औऱ अंग्रजी दोनों में लेक्चर देते थे इसलिए बात सबकी समझ में आ जाती थी। फिर भी मेरा मन एक हिंदी प्रेमी पत्रकार से दोस्ती के लिए तड़पता ही रह गया। पढ़ाई के दौरान ही पंजाब केसरी में पहले इंटर्नशिप और फिर नौकरी का मौका मिला। यहां मैने कई महीनों तक रिपोर्टिंग की लेकिन यहां भी जिन लोगों को संपर्क में मैं आया उनमें वो बात न थी जो मैं ढूंढ रहा था। हां ऑफिस और फील्ड में किसी-किसी को देखकर ये जरुर लगता था कि आखिर इन जैसे लोगों को पत्रकार किस बुनियाद पर कहा जाए। न तो भाव का पता और नही भाषा का। बाद में पता चलता था कि ये इस फील्ड का सबसे बड़ा जुगाड़ी आदमी है, तो इसकी फलाने विभाग में तूती बोलती है। ऑफिस में बड़ा पत्रकार उसे ही माना जाता था जो ज्यादा बिजनेस लाकर देता था। ऐसे कथित महारथियों के बीच मुझे काम करना रास नहीं आ रहा था। दफ्तर में भाषा और भाव जैसे विषयों से ज्यादा चर्चा 'कुर्सी के किस्से' की होती थी। और इसी कुर्सी गेम में हमें नियुक्त करने वाले ब्यूरो चीफ पर दालाली लेकर नौकरी देने का झूठा आरोप लगाते हुए सारी नियुक्तियां रद्द कर दी गई। साथ ही उनकी कुर्सी भी छीन ली गई। लेकिन यहां उनकी नौकरी सिर्फ इसलिए बच गई क्योंकि उनकी भाषा, विरोधी खेमे के खेवनहार से अच्छी थी। उनकी स्पष्ट और सटीक भाषा शैली में लिखे खत ने सबको चित कर दिया। सब अंदर तक कांप गए। वो नहीं झुके बल्कि मैनेजमेंट झुका। उन्हें उनकी कुर्सी वापस देने को बुलाया गया। लेकिन उन्होंने ये स्पष्ट तौर पर जाहिर कर दिया की जिस दफ्तर में मेरा अपमान हुआ वहां मैं नहीं जा सकता। अंत में उनके घर में ही ब्यूरो ऑफिस बनाया गया है।
कुछ दिनों बाद मुझे अमर उजाला में नौकरी मिल गई। मैं यहां डेस्क पर नियुक्त हुआ। यहां मुझे कई ऐसे लोग मिले जो मेरे आर्दश इंसान के बहुत करीब थे। लेकिन पूरी तरह आदर्श कोई नहीं मिला। हां संपादक शशि शेखर जी के साथ दो मीटिंग में शामिल होने का मुझे मौका मिला। मीटिंग में शशि जी जिस प्रवाह से हिंदी का इस्तेमाल करते हैं, मैंनें वैसा अब तक नहीं देखा। उनकी बातों से लोगों में ज्यादा जोश आ जाता है। ऐसा इसलिए की उनकी हर बात भाषा और साहित्य का मिला जुला लेप होती है (ऐसा मुझे लगता है)। शशि जी जैसे संपादक के साथ करने का गर्व उनसे पहली मुलाकात के बाद से ही था लेकिन वहां पैसा कम होने के चलते मैं अपनी जिंदगी को व्यवस्थित नहीं कर पा रहा था। वहां अभी छह महीने भी नहीं बीते थे कि एक टीवी चैनल में काम करने का मौका मिल गया। टीवी के ग्लैमर और दोगुने पैसे की लालच में मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली। यहां भी मेरी खोज जारी रही। कुछ लोग मिले भी जिनसे कुछ सीखने को मिला, लेकिन कोई ऐसा नहीं मिला जिसे आदर्श कहा जा सके। कई तो ऐसे मिले जो कहने को मुझसे पंद्रह साल सीनियर लेकिन गलतियां इतनी कि पांचवी क्लास का बच्चा भी शरमा जाए। और मेरी बदनसीबी देखिए की वैसे ही लोगों को भाषा की शुद्धिकरण के मंत्रोचार का जिम्मा दिया गया है। यहां कुछ महीने बीते ही थे कि एक विशाल कद काठी और अप्रतिम कुदरती सौंदर्य वाले युवक को देखा। चेहरे पर तेज और हर वक्त एक विनम्र मुस्कान के साथ हर किसी का हिंदी में अभिवादन करने वाला ये युवक चंद दिनों में ही सबकी निगाह में आ गया। धीरे-धीरे हमारी बातचीत भी बढ़ी। उसकी हर बात में मुझे वो बात दिखाई देती जो मैं अब तक ढूंढ रहा था। भाषा और भाव दोनों पर उसका अजब नियंत्रण है। हर माहौल में उसकी अभिव्यक्ति उसका धाक जमाने में कारगर होती है। वो अच्छा लिखता है। जान पहचान के बाद पता चला कि ये उसकी पहली नौकरी है। लेकिन जो नहीं जानते वो यही समझते हैं कि आदमी काफी अनुभवी है। कहते हैं न कि जब किसी से उसके मन के विपरीत काम कराया जाने लगे तो इंसान घुटने लगता है। ऐसा ही हुआ उसके साथ। उसके हुनर को नजरअंदाज करते हुए उससे वो काम कराया जाने लगा जिसमें न तो भाषा का और ना ही भाव की अहमियत है। बल्कि वहां वही कामयाब होते हैं जो अपनी भाषा और भाव दोनों को विकृत कर लें। इसी तनाव में उस नौजवान का गुलाबी चेहरा काला होने लगा। उसकी रातों की नींद हराम हो गई। मुझे हर वक्त उसकी चिंता रहती। लेकिन मैं कुछ न कर पाता क्योंकि मैं कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हूं। अंतत: उसका कोमल मन इस काम से इस कदर उखड़ा की उसने नौकरी को ही बॉय-बॉय करने की ठान ली। लेकिन बॉस ने कहा कि तुम 20 दिन की दिन छुट्टी पर चले जाओ। आराम करो। मन करेगा तो काम करना नहीं तो अपने निर्णय के लिए तुम स्वतंत्र हो। मैने भी बॉस से बात की और उसकी परेशानी बताई । मैं चाहता हूं कि वो आज भी मेरे साथ रहे। क्योंकि उसकी उपस्थिति मुझे एक ताकत देती है। ताकत उस हकीकत का जो उसके बिना मुझे सिर्फ सपना ही लगता है। लेकिन वो तो चला गया है। उसका हाल जानने के लिए मैने उसके बनाए प्याले को भी खंगाला। लेकिन वो तो पिछले 8 दिनों से अपने प्याले से भी भी नादरद है। उसके प्याले का पान करने वालों उससे कहों कि वो लौट आए। क्योंकि शायद, वो मेरा 'आदर्श' है

नोट: मैं हिंदी भाषा से बेहद प्यार करता हूं लेकिन अभी भी इस भाषा को सीखने की कोशशि जारी है। अगर कहीं कोई अशुद्धि हुई होगी तो कृप्या क्षमा करें।
सबका
'छलिया' प्रभात

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