Friday, February 27, 2009

रेल यात्रा से भली जेल यात्रा

ऐसे तो लालू जी के नाम से संलग्न उपलब्धियों की संख्या अनेक हैं, पर जिस पर मैं बौद्धिक व्यायाम करने जा रहा हूं वह है उनके द्वारा प्रस्तुत रेल बजट एवं उससे उभरते कुछ सवाल।
लालू जी द्वारा प्रस्त या प्रस्तुत रेल बजट को लेकर जहां संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार रोमांचित है वहीं लालू जी भी स्वयं के पीठ थपथपाने में पीछे नहीं हैं। विरोधी दलों द्वारा जहां इस बजट को लालू द्वारा गाल बजाने के सिवाय कुछ नहीं माना जा रहा है, वहीं वे नाराजगी व्यक्त कर गाल फुलाए बैठे हैं। सरकार के कुछ समर्थक एवं विरोधी दलों के अनेक सदस्य तो कान में तेल डालकर मौन रहना ही उचित समझ रहे हैं।
मुझ जैसा शक्तिविहीन सिद्धांत वादी(जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में आप नपुंसक कह सकते हैं) जब तटस्थ भाव से इस ऐतिहासिक बजट( जैसा की सरकार का दावा है) का विशलेषण करे तो दूसरा ही चित्र उभरता है।
रेल बजट को लोकप्रिय बताने का एक कारण ये है कि इसमें किराया में वृद्धि या बढ़ोतरी करने के बजाय कमी की गई है। मेरा मानना है कि भाड़ा में कमी एवं यात्री सुविधा में जो अंतर्विरोध झलकता है उस दृष्टिकोण से इसे आम बजट न कहकर खास बजट कहना ही न्यायपूर्ण होगा।
यात्रा का संबंध मंजिल से है। मंजिल तक पहले भी रेल यात्री पहुंचते रहे हैं, आगे भी पहुंचेंगे। प्रश्न यह है कि क्या पूर्व की स्थिति से भावी स्थिति में कोई गुणात्मक सुधार होने जा रहा है। न चाहते हुए भी मैं इसका नाकारात्मक उत्तर देने को विवश हूं।
सामान्य श्रेणी के डब्बे में आज भी कोई सामान्य व्यक्ति एक बार यात्रा कर ले तो उसकी मांसपेशी का असामान्य होना तय है। भीड़ की स्थिति इन डब्बों में यह है कि दूर से देखने पर सभी यात्री एक दूसरे से गले मिलते नजर आएंगे। अगर कोई इसे भाईचारा का उदाहरण मान ले तो मैं कुछ नहीं कर सकता।
लोकप्रिय बजट का सीधा-सादा प्रतिमान यहा है कि सामान्य जनता इससे कहां तक लाभान्वित हो रही है। किराये में कमी परिमाणात्मक प्रतिमान को संतुष्ट करता है जबकि सुविधा में वृद्धि गुणात्मक प्रतिमान को। हम मानव हैं। मानव न सिर्फ बनाना या खाना चाहता है बल्कि सुंदर ढंग से बनाना या खाना चाहता है। क्या इस बजट में इस स्तर पर मानवीय प्रतिमान को पल्लवित किया गया है ? उत्तर नाकारात्मक ही होगा।
वातानूकूलित डब्बे में लोग (यात्री) लालू जी से पूर्व भी आराम से यात्रा करते थे और आज भी कर रहे हैं। सामान्य श्रेणी में पहले भी असामान्य एवं असहज स्थिति थी और आज भी लोग असहजता का अनुभव कर रहे हैं। आज हम व्यवहारबाद के युग में जी रहे हैं। अत: इसके द्वारा स्थापित मानक की उपेक्षा नहीं कर सकते। व्यवहारवाद जो पर्स, जेम्स, एवं शिलर प्रभृति विद्वानों द्वारा स्थापित सिद्धांत है का मूल है कि 'वही विचार सत्य है जो दो अनुभूतियों के मध्य उत्पन्न विविधता की व्याख्या कर सके'। इस प्रतिमान पर भी लालू जी का रेल बजट निराश ही कर रहा है। चूकि प्रथम एवं द्वितिय श्रेणी के यात्री सुविधा सम्पन्न होते हुए भी किराये में कमी के फलस्वरुप भौतिक स्तर पर लाभान्वित हो रहे हैं वहीं सामान्य श्रेणी में किराया में कमी से यात्रियों की भीड़ बढ़ने के कारण इन्हें असुविधा का सामना करना पड़ रहा है।
इन्हीं की असुविधा को देखते हुए मैं दुविधा का अनुभव कर रहा हूं। मेरे लिखने का आशय यह नहीं है कि मैं लालू जी के प्रति किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित हूं बल्कि इतना ही है कि लोग यथार्थ से अनजान न बनें।
कोई भी सामान्य श्रेणी में रेल यात्रा करने के पश्चात यदि जेल यात्रा करता है तो वह इन दोनों यात्राओं के मध्य शायद ही अंतर स्पष्ट कर सके। जेल यात्रा में तो भोजन वस्त्र एं आवास कम कीमत पर क्या बल्कि मुफ्त उपलब्ध रहता है। फिर भी मानवाधिकार के नाम पर, मानवीय मूल्यों के हनन के नाम पर हम इसकी आलोचना करते हैं। फिर क्या कारण हो सकता है कि मात्र कुछ रियायत प्रदान कर यदि रेलमंत्री दुखद यात्रा की व्यवस्था करें तो उनकी आलोचना न की जाय।
सार संकलन में कहा जा सकता है कि लालू जी का रेल बजट दोषरहित किंतू दूषण सहित है। सामाजिक न्याय के पुरोधा ने समाज के दबे कुचले लोगों के साथ वैसा ही अन्याय किया है जैसे फ्रांसीसी क्रांति के प्रवाह में स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारों के बीच रोमांरोला की हत्या।
लालू जी के रेल बजट पर क्रिया-प्रतिक्रिया के बीच यही कहा जा सकता है कि-
"राज खुल जाय न साकी की तंगदश्ती का
जाम खाली ही सही, मुंह से लगाए रखिए"

लेकिन लालू जी शायद यह भूल रहे हैं कि-
" खुश्क बातों में कहां है ये शैख कैफे जिंदगी
वो तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है"

इस बजट में जो निहित तथ्य है एवं जिस रुप में इसको प्रदर्शित किया गया है इस पर यह कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा-
"पये-नजरे करम तोहफा है शर्मे नारसाई का
लखूं गलतीदा-ए-सदरंग दावा पारसाई का"
आम जनता जो किराया संबंधी मूल्यों में कमी की सुखद अनुभूति से ओतप्रोत हो मानवीय मूल्यों के हनन को भूल बैठी है, उसके लिए यही कह कर लेखनी को विराम देना वांछनीय समझता हूं कि-
" वक्त आता है इक ऐसा भी मोहब्बत में की जब
दिल पे एहसास से- मोहब्बत भी गिरां होता है
कहीं ऐसा तो नहीं वो भी हो कोई आजार
तुमको जिस चीज पे राहत का गुमां होता हो"

2 comments:

संगीता पुरी said...

मेरे ख्‍याल से इतनी बुरी भी तो नहीं होती रेल यात्रा ... किस ट्रेन में जाकर बैठ गए थे ?

शून्य said...

लेख तो मैंने काफी पहले पढ़ लिया था लेकिन कमेंट आज कर रहा हूं। उम्दा अभिव्यक्तिकरण है।
शुभकामनाएं...